आज के दौर में शीशा देखे बिना हमारा दिन नहीं गुजरता है. लेकिन क्या आप जानते है कि शीशे को देखने की परंपरा कैसे और कब शुरू हुई?
जैसा कि आप जानते है कि शीशे में अपना चेहरा देखने की प्रथा काफी पुरानी है. काफी पुराने वक्त से लोग सजने संवरने के लिए और चेहरा देखने के लिए शीशे का प्रयोग कर रहे है.
बताया जाता है कि शीशे का आविष्कार 1885 में हुआ था. जब जर्मन रसायन विज्ञानी जस्टस वॉन लिबिग (Justus von Liebig) ने कांच एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगाकर इसको बनाया था.
हालांकि पहले के दौर में घर-घर में शीशा नहीं होता था. उस वक्त अधिकतर लोग अपनी छवि पानी की सतह पर ही देखते थे.
वहीं 18वीं सदी से शीशे का उपयोग तेजी से बढ़ा है. इस वक्त शीशा निर्माण मशीनीकरण से शुरू हो गया था. जिसके वजह से दाम में कमी आई.
वहीं आज हमारे पास चेहरे को देखने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं. फोन से लेकर कंप्यूटर तक में हम अपना चेहरा देख सकते है.
लेकिन सालों पहले लोगों को खुद को शीशे में देखना बहुत बढ़ी बात थी. जब लोगों ने पहली बार शीशा देखा तो उन्हें लगता था कि शीशे को देखकर उन्हें भगवान के दर्शन हो जाएंगे.
बता दें कि चेहरा देखने वाला शीशा अवतल दर्पण का होता है.